मीर बाकी का नाम अयोध्या विवाद में उभरता है क्योंकि कहा जाता है कि इसी कमांडर ने अपने बादशाह बाबर के नाम पर यहां बाबरी मस्जिद बनवाई थी। मस्जिद के शिलालेखों के अनुसार, मुग़ल बादशाह बाबर के आदेश पर मीर बाकी ने सन 1528-29 में इस मस्जिद का निर्माण किया था। एक समय यह उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी मस्जिद थी और विकीपीडिया के अनुसार, 1940 के दशक में इसे मस्जिद-ए-जन्मस्थान भी कहा जाता है। इस नाम से अंदाजा लगता है कि इस भूमि को भगवान राम का जन्मस्थान माना जाता रहा है।
माना जाता है कि मीर बाकी ने मस्जिद बनाने के लिए उस वक्त की सर्वोत्तम जगह को चुना और रामकोट, यानी राम के किले को इस कार्य के लिए चुना। जनश्रुतियों के अनुसार, मीर बाकी ने मस्जिद बनाने के लिए वहां पहले से मौजूद भगवान राम के मंदिर को तोड़ा था। हालांकि, मुस्लिम पक्ष इस स्थान पर पूर्व में मंदिर होने की बाद को नकारता रहा है। साल 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने भी पाया कि मस्जिद के नीचे एक पुराना खंडहर मौजूद है, जो हिंदू मंदिर से मिलता-जुलता है।
आखिर कौन था मीर बाकी?
मीर बाकी मुगल बादशाह बाबर का एक सेनापति था और मूल रूप से ताशकंद (मौजूदा उज्बेकिस्तान का एक शहर) का निवासी था। माना जाता था कि बाबर ने उसे अवध प्रदेश का शासक, यानि गवर्नर बनाया था। बाबरनामा में मीर बाकी को बाकी ताशकंदी के नाम से भी बुलाया गया है। इसके अलावा उसे बाकी शाघावाल, बाकी बेग और बाकी मिंगबाशी नामों से भी जाना गया। लेकिन बाबरनामा में उसे मीर नाम से नहीं पुकारा गया है। मामले के जानकार किशोर कुनाल का मानना है कि अंग्रेज सर्वेयर फ्रांसिस बुकानन ने 1813-14 में बाकी के नाम के आगे मीर लगाया, जिसका अर्थ राजकुमार होता है। माना जाता है कि इसी मीर बाकी ने 1528 में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया था, जो आगे चलकर एक बड़े विवाद का कारण बनी।
बाबर ने मीर बाकी को निष्कासित क्यों किया ?
विभिन्न स्रोतों के अनुसार जनवरी-फरवरी 1526 में बाकी को शाघावाल नाम से भी जाना जाता था । उस वक्त बाकी को लाहौर के पास दिबलपुर का क्षेत्र दिया गया था और बल्ख (वर्तमान अफगानिस्तान) में एक विद्रोही को वश में करने की जिम्मेदारी दी गई थी । यहां से वापस आने के बाद बाकी को चिन-तिमूर सुल्तान के नेतृत्व में 6-7 हजार सैनिकों का कमांडर बनाया गया। 1528 में इस सेना को एक अभियान पर चंदेरी भेजा गया। यहां से उनके दुश्मन भाग निकले और चिन-तिमूर सुल्तान को उनका पीछा करने का आदेश मिला। जबकि अधीनस्थ कमांडर (बाकी) को इससे आगे न जाने का आदेश हुआ। मार्च 1528 में चिन तिमूर सुल्तान के ही नेतृत्व में बयाजिद और बिबन (इब्राहिम लोदी के पूर्व कर्मचारी) को अवध के पास पकड़ने के लिए भेजा गयाथा इन दोनों ने मुगल सेना से लखनऊ मुगल किला छीन लिया और 1529 तक लखनऊ को अपने कब्जे में रखा। मुगल सेना की इस हार का जिम्मेदार बाकी को माना गया ।
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उस वक्त लखनऊ किले की जिम्मेदारी मीर बाकी के कंधों पर थी। बाबर हार मानने वाला नहीं था, उसने कुकी और अन्य के नेतृत्व में और सेना भेजी। बयाजिद और बिबन को जब और सेना के आने की भनक लगी तो वे लखनऊ से भाग निकले। लखनऊ किले को कुछ समय के लिए खोना और बाकी के उस पर कब्जा न रख पाने की वजह से बादशाह बाबर उससे बहुत नाराज था। इसके बाद 13 जून 1529 को बाबर ने बाकी को बुलावा भेजा। 20 जून 1529 को बादशाह ने बाकी को अपनी सेना से निकाल दिया। बाकी के साथ ही अवध में उसकी सेना को भी बाबर ने निकाल दिया, जिसका वह नेतृत्व करता था। इसके अलावा बाकी का जिक्र बाबरनामा में भी नहीं मिलता। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्वेयर फ्रांसिस बुकानन ने 1813 में अपने शोध से यह साबित करने का प्रयास किया कि बाबरी मस्जिद के निर्माण में मीर बाकी का प्रमुख योगदान रहा था ।
अन्य ऐतिहासिक तथ्य जिसमे मीर बाकी का कोई उल्लेख नहीं है
हालांकि प्राचीन रिकॉर्ड्स में 1672 तक उस स्थान पर कोई मस्जिद भी थी और जिसका संबंध बाबर या मीर बाकी से था, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है । यह तो पहली बार बुकानन के सर्वे में सामने आया था । बाबरनामा में न तो ऐसी किसी मस्जिद का जिक्र है और न ही किसी मंदिर के गिराए जाने का उल्लेख । तत्कालीन 1574 में तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित् मानस और 1598 में आईन-ए-अकबरी में भी अयोध्या में बाबरी मस्जिद का कोई जिक्र नहीं है। इन्हीं सब कारणों से हिन्दू पक्ष किसी भी तरह की मस्जिद होने के इतिहास से सहमत नहीं होते रहे हैं और यही कारण है कि हिन्दू पक्ष इसे बाबरी ढ़ाचा कहते हैं ।
मीर बाकी की सारगर्भित जानकारी के लिए एक बार अवश्य पढ़ें : मीर बाकी